हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता

हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता

 आज के राजनीति में हिंदुत्व को गाली देकर अपने आपको धर्मनिरपेक्ष कहना एक परंपरा हो गयी है।
पहली बात तो ये की वे न तो हिंदुत्व का अर्थ समझते हैं और न ही धर्मनिरपेक्षता को। जिस कारण भारत के अधिकांश व्यक्ति हिंदुत्व को गलत अर्थ में लेते हैं , उनके अनुसार हिन्दू शब्द ही साम्प्रदायिक है।
यदि आज के अनभिज्ञ भारतीय यह समझ लें कि हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता में उतना ही अंतर है जितना कि आकाश और पाताल में तो वे अपनी मानसिक दासता की सबसे मजबूत श्रृंखला को अवश्य तोड़ने में समर्थ हो जाएंगे।
हिन्दू शब्द की परिभाषा भिन्न भिन्न प्रकार से दी गई है पर सबसे विशद, प्रामाणिक और सरल परिभाषा अखिल भारतीय हिन्दू महासभा की ओर से निम्न प्रकार से दी गई है____
आसिन्धोः सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिकाः ।
पितृभूः  पुण्यभूश्चैव  स  वै  हिन्दुरिति  स्मृत: ॥
>>अर्थात जो सिंधु नदी से लेकर सागर(कन्याकुमारी) तक इस भारत भूमि को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि मानता है वह हिन्दू है।
कितनी असाम्प्रदायिक परिभाषा है यह। साम्प्रदायिकता का इसमे तो नामो निशान तक नही है।यह परिभाषा किसी भी सम्प्रदाय विशेष की ओर इंगित करती प्रतीत नही होती। इसमे तो हिन्दू की परिभाषा दी गयी है कि जो इस समस्त भूभाग को अपने पितृ-भूमि और पुण्य-भूमि मानता हैं। इस श्लोक को पढ़ने से हमे पता चलता है कि हिन्दू धर्म मे कितनी राष्ट्रीयता है और देशभक्ति है।जो मनुष्य इस भूमि को अपनी पितृ-भूमि और पुण्य-भूमि मानेगा वह कभी इसको धोखा नही दे सकता।हिन्दू हिंदुस्तान के लिए जी सकता, है मर सकता है और अपना सर्वास्र समर्पण भी कर सकता है। एक हिन्दू को अपनी भारत भूमि को पूण्य-भूमि भी मानना पड़ेगा।
           पुण्य भूमि का अर्थ उसके तीर्थ औऱ महापुरुष दोनो भारत भूमि से ही उत्पन हुए हो।उसके हृदय में भाव हो कि "हम इसी भारत भूमि में जन्म ले तथा इसी भारत भूमि में मरे"।
एक हिन्दू के तीर्थ काशी और मथुरा होंगे, न कि मक्का और वेटिकन सिटी। हिन्दू वास्तव में शुद्ध राष्ट्रीय होगा ।अब जो व्यक्ति अपनी मातृ भूमि को पितृ भूमि और पुण्य भूमि मानता है। वह किसी भी हालत में अपने देश के साथ किसी भी प्रकार का विश्वासघात नही करेगा। अतएव केवल पितृ भूमि मानकर ही कोई राष्ट्रीय नही हो सकता, पूण्य भूमि भी उसके लिए स्वीकार करना आवश्यक है।
  प्रत्येक मस्तिष्क में दो प्रकार की मनोवृत्तियाँ सुरक्षित होती हैं__ एक, जो पुण्यभूमि की ओर मनुष्य को आकर्षित करती है और दूसरी, जो पितृ भूमि की ओर। अब कल्पना कीजिये कि मक्का से तथा भारत से युद्ध हो जाता है। जिनकी पूण्य भूमि की ओर आकर्षित करने वाली मनोवृति अधिक बलवती रही, वे निश्चय ही मक्का का पक्ष लेंगे।
  अब आते हैं सम्प्रदाय की परिभाषा पर, चिरकाल से चली आ रही अविच्छिन्न परंपरा को सम्प्रदाय कहते हैं। अर्थात सनातन धर्म एक सम्प्रदाय हो सकता है या बौद्ध धर्म को हम एक सम्प्रदाय कह सकते हैं। क्योंकि चिरकाल से चली आ रही इनकी एक अविच्छिन्न परंपरा है। परंतु हिन्दू चिरकाल से चले आने पर भी एक ही परंपरा , एक ही रूढ़ि, एक ही नियम में आबद्ध नहीं। वेदविरोधी चार्वाक भी हिन्दू थे, भगवान ब्यास भी हिन्दू थे, जिन्होंने वेद की सत्ता को सर्वपरि माना। शाक्त भी हिन्दू हैं, जो हिंसा में दोष नही मानते एवं बौद्ध और जैन भी हिन्दू हैं, जो 'अहिंसा परमो धर्मः' के उपासक हैं।
ये सब भिन्न भिन्न सम्प्रदाय से हैं, पर एक व्यापक रूप में ये सभी केवल हिन्दू हैं। एकत्रित होने पर इनकी सत्ता एक राष्ट्रीयता को जन्म देती है-- जिसे हिंदुत्व कहते हैं। न तो ब्राह्मण अधिक है और न ही शुद्र कम, दोनों हिन्दू हैं। इसप्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता में दूर दूर तक कोई संबंध नही है।
वास्तव में हिंदुत्व एक सागर है, जिसमे भिन्न भिन्न सम्प्रदाय की नदियां आकर विलीन हो जाती है और विलीन होनेपर वे सागरमय हो जाती हैं। वे विभिन्न तरंगों के रूप में लहराती हुई एकमात्र समुद्र की शोभा बढ़ाती है और उसकी महता घोषित करती है। ये सब मिलकर सागर का प्रतिनिधित्व करती हैं, अतएव हिन्दू एक महान राष्ट्र का नाम है।
  अतएव हिंदुत्व साम्प्रदायिकता नही राष्ट्रीयता है, जिसका भारत के अतिरिक्त कोई अस्तित्व नही है। कितने सम्प्रदाय नष्ट हो गए, नष्ट हो रहे, और नष्ट होंगे, पर हिंदुत्व इन सबके ऊपर है और अमर है। वह कभी न नष्ट हुआ है, और न नष्ट होगा। यदि किसी दिन भारत की इस राष्ट्रीयता (हिंदुत्व) के समाप्त होने की बात सोची जा सकती है तो उसी के साथ यह भी सोच लेनी चाहिए कि उस दिन भारत ही समाप्त हो जाएगा।

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